प्राचीन काल की बात है मुझे ट्रेन में दिल्ली से बंग्लौर जाना था. हाथ में टिकेट लिए देख रहा था कौनसा डब्बा है अपना और दिल में उम्मीद लिए की आस पास वाले घंटू ना निकल जाये मैं डब्बे डब्बे की ठोकरे खा रहा था. फिर अपन ट्रेन में अपलोड हो गए. ट्रेन चलना शुरू हुई और मैंने अपने राष्ट्रीय वस्त्र निक्कर टी-शर्ट धारण कर लिए. अब अपनी तो सबसे ऊपर वाली सीट थी जिससे ऊपर छत होती है और उससे ऊपर भगवान . फिर मैंने फ़ोन उठाया और सारी दुनिया को बताना सुरु कर दिया की ट्रेन चल पड़ी.
ट्रेन की खिड़की पर बैठे कान में लीड घुसेड बहार के नज़ारे लेने की आस. आस ही लगती दिख रही थी. चलो कोई ना देखी जायगी और ट्रेन की छत देखते हुए प्राचीन से भी प्राचीन काल के गीत सुनते हुए कब मेरे नयन सो गए पता ही नहीं चला.
अचानक से किसी अनजान मनुष्य ने मेरे हाथो को छुआ और कहने लगा
“ सूप लेलो सर “
तो साले डरा क्यों रहा है बे
और मैं सोच रहा था की “ मैं आखिर हूँ कहा “
अब आस पास की सीट भी भर चुकी थी . और कुछ लौंडे अंग्रेजी भासा का जोर जोर से उचारण कर रहे थे.
और कुछ कन्या उनकी बातोँ पर अपने दन्त मसुडो का प्रदर्शन कर रही थी
पर मेरा कंसंट्रेशन कही और ही था क्योकि “सुसु आई थी मुझे”
हल्का होने के बाद फोकस बढ़ गया था तब अपनी सबसे ऊपर वाली सीट पे जाकर बैठ गया जिससे ऊपर छत होती है और उससे ऊपर भगवान और फिर नीचे देखते हुए सूप ड्रिंकिंग शुरु कर दी. नीचे वाले तीव्र गति से अंग्रजी बोल रहे थे जैसे एटलांटा में पैदा हुए हो साले.
तभी मेरी नज़र खिड़की के पास सफ़ेद सूट में बैठी उस सुंदर संस्कारी कन्या पर गयी मतलब देखते ही लग रहा था की भगवान ने कई वीकेंड लागाये होंगे बनाने में. और अगली बोले तो ऐसे लगे जैसे फूल झड रहे हो या जैसे रात के टाइम ठंडी हवा चल रही हो पर कम्बखत बोलती ही बहुत कम. और भगवान झूठ ना बुलाये जिन्दगी में ये मुझे 7 वी – 8 वी बार सच्चा प्यार हुआ था. मतलब अब इतनी तारीफ़ मैं कर नहीं सकता पर एक बात थी लड़की शर्माती बहुत थी. चलो अभी भावनाओ पे काबू पाया जाये.
सफ़र चलता गया और अपना तो कंसंट्रेशन पूरी दुनिया से भंग हो चूका था…
खिड़की से बहार देखने की बजाये अब में खिड़की ही देख रहा था.
“ जे तू अंखिया दे सामने नहीं रहना ते बीबा सद्दा दिल मोड़ दे “
नसुरत फ़तेह अली खान जी बज चुके थे. और में कोहनी को तकिया बनाये दर्शन में खोया हुआ था.
तभी एक सज्जन पुरुष आये और मुझे हाथ लगा के बोले
“ चाय ले लो सर “
तो साले डरा क्यों रहा है बे
और मैंने चाय ले ली
अब मेरे अंदर का जंगली शायर जाग चूका था और मैंने अपनी किताब कलम निकली और हो गया शुरू. चाय की घुट घुट में शायरी भरी हुई थी कम्बखत.
अच्छा शायरी सुननी है …???
पट पट ….. और सुननी है …. पट्टा पट पट्टा पट… और … ????
शायरी भी मिलेगी पर पहले कहानी तो सुन लो बे….. सब कुछ पहले ही चाहिए.
अब बाकि सारी लडकिया चाई चाई करे जाये और वो कुछ बोले ना मेरा तो ऐसा मन कर रहा था की ये चाय इन सब पे डाल दू और सॉरी भी ना बोलू.
फिर मैं भावनाओ पर काबू करते हुए आराम से चाय पीने लगा.
ट्रेन में हल चल तेज हो चली थी और सभी संस्कारी लोग अपना अपना बैग पैक करने लगे. घंटा पता ही नहीं लगा की कब 33 घंटे निकल गए.
तभी एक सज्जन पुरुष आये और मुझे हाथ लगा के बोले
“सर कुछ सेवा दे दो “
मन तो कर रहा था इसकी सेवा कर ही दु फिर मैंने कहा
अरे डरा क्यों रहा है बे
“ ये ले पूरे 20 रुपे तू भी क्या याद रखेगा की कोई रहिस आया था ट्रेन में कभी “
अब सीन था की वो दरवाजे पर हाथ में बैग लिए खड़ी थी और अपन दूर से लास्ट बार देख रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे कोई सालो पुराना खास यार जा रहा हो. फिर मैंने खुद को समझाया “ भावनाओ में मत बह… अगली बार और सुथरी मिलेगी “ और में ट्रेन से उतरा.
तभी एक सज्जन पुरुष आये और उससे कहने लगे.
“मैडम कुली कुली”
मैं मन ही मन सोच रहा था
“ ना हम मर गए क्या … जो कुली चाहिए ? “
फिर उसने बैग कुली को पकडाया और जाती भीड़ में कही लुप्त हो गई.