सपने और हक़ीकत 

सूरज़ रोज़ निकलता है
रात अंधेरी से लड़कर
आँखों मे सपने लिए हुए
अरमानों के कंधे पर चढ़ कर

 हसरत जगमग उठती है
मसतक पर तेज़ झलकता है
क्यों वक़्त नही रूक जाता है
नर ओढ़ वीरता चलता है 

पर जंग जीवन की अंनत रही
पथ पथ पर उलझन आती है
कायर को रही तोड गिरा
बलशाली को तड़पती है 

रोज अंधेरे मे दिन के
ये रुह बावरी फ़िरती है
बिन मक़सद ज्यूँ चलती नौका
जा अंजाने साहिल मिलती है 

काग़ज़ के टुकड़ों कि ख़ातिर
अनमोल मिला वो बेच दिया
जो वक़्त क़ीमती हीरा था
जला आग सुलगती झोक दिया 

ये आज गया यू कल जाना
दिन साल महीने ढल जाना
जीवन के पथ रथ चल जाना
जो मिला आज वो कल जाना 

आशा और निराशा कि
छाया जीवन मे तार रहे
कुछ मार वक़्त कि पड़ती है
कुछ पैर कुल्हाड़ी मार रहे 

है काली घटा निराशा कि
छिपी जिसमें किरण है आशा कि
इस जीवन कि परिभाषा कि
फ़सल खेत मे डाल रहे 

अब रोज के क़िस्सों का आलम
कुछ दिल पर यू आ बैठा दीप
कि हर रोज ही हस्ती उठती है
हर रोज ही मरने की ख़ातिर 

प्रदीप सोनी 


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